भाषा वहीँ जो ‘पिया’ मन भाये !

जनभाषा को अपनाने के लिए जनांदोलन के पक्ष में !

एक  
किसी भी मंदिर में स्थापित पत्थरनुमा भगवान-ईश्वर (?) का आप सीधे पूजा-जाप नहीं कर सकते. भगवान-ईश्वर (?) और आपके बीच में एक बिचौलिया होता है, जिसे पुजारी भी कह सकते हैं. ठीक यहीं स्थिति मस्जिद, गुरुद्वारे और चर्च में देखने को मिलती है.
दो  
अब न्यायपालिका में आइये. यहाँ भी.वहीँ स्थिति है. जज और आपके बीच में संवाद कायम करने के लिए एक बिचौलिया यानी वकील चाहिए होता है. यह एक प्रोफेशनल पेशा है. जो निरंतर जारी है. आप चाहकर भी अपने मसले को सीधे जज तक नहीं पहुंचा सकते. वकील को माध्यम बनाना
पड़ेगा. आपके पास आर्थिक सामर्थ्य हो न हो. कोई मायने नहीं. जज आप की भाषा नहीं जानते. आप जज की भाषा नहीं जानते.(अपवाद छोड़कर) उदहारण से समझिए -आप भोजपुरी या मगही जानते हैं. आपके मुकदमे की सुनवाई चल रही है. आप न्यायलय में मौजूद हैं. जज के सामने आपके वकील आपके ही मसले को अंग्रेजी में रख रहा है. आप दोनों की तरफ टुकुर-टुकुर देख रहे हैं. भाषा आपको समझ में नहीं आ रही है. चेहरे का हाव-भाव देखकर अनुमान लगाये जा रहे हैं. अदालत का फैसला अंग्रेजी भाषा में आता है. 20 पन्ने के फैसले में से वकील मोटी-मोटी बात बता देगा. फैसला आपके पक्ष में है खिलाफ़. लेकिन यहीं फैसला या अदलाती बहस आपकी भाषा में होती तो आपको पता होता. कमजोर पक्ष भी और मजबूत पक्ष भी. संभव है, आप भी उठकर जज से तर्क कर लेते. पड़ोसी से झगड़ा तो आपने भोजपुरी में किया लेकिन, मुकदमे की सुनवाई अंग्रेजी में हुई.
तीन  
लोकतंत्र में आपका एक प्रतिनिधि होता है. सरकार और आपके बीच पुल बनाता है. आपकी बात को वह सरकार तक पहुँचाता है और अपनी बात को उसके तक. जब पार्लियामेंट में बहस होती है तो वह आपकी भाषा नहीं बोलता (अपवाद छोड़कर) लेकिन जब आपके बीच वोट मांगने जाता है जाता है, आपकी भाषा का चुनाव करता है. कई नेता हैं, जिनकी चुनावी भाषा हिन्दी है. इनमें कांग्रेस अध्यक्ष भी शामिल हैं. चुनाव को छोड़कर कर शेष मामले में जनभाषा से इनका कोई खास सरोकार नहीं होता. यदि होता तो श्याम रूद्र पाठक को पुलिसिया उत्पीडन का शिकार न होना पड़ता. जो उच्च / सर्वोच्च न्यायालयों से अंग्रेज़ी का एकाधिकार समाप्त करने और उनमें भारतीय भाषाओं को जगह दिलाने के लिए विधेयक लाने के लिए कांग्रेस कार्यालय पर महीनों से धरना दे रहेकम से कम कांग्रेस को तो भाषा की लाज रखनी चाहिए.
चार  
भारतीय भाषाओँ की लड़ाई. हम सब की लड़ाई है. जम्हूरियत जिंदाबाद का नारा लगाने वालों का भाषाओँ से मातृत्व सरीखा लगाव नहीं रहा है. वरना न्याय पाना. सही और समय पर न्याय पाना. अपनी भाषा में न्याय पाना.किसी भी लोकतंत्र का प्रथम उद्येश्य होना चाहिए. लेकिन भारतीय परिपेक्ष्य में यह छलावा साबित हुआ है. न्याय पालिका और जनता के बीच, भाषा ही एक मात्र जीवंत माध्यम का विकल्प है. यह लड़ाई किसी एक आदमी की लड़ाई नहीं है. यह लड़ाई उन सब की लड़ाई है, जो अपने नज़रों के सामने अपनी भाषा में न्याय सुनना-समझना चाहते हैं. ये बात उन्हें भी याद रखनी होगी जो अंग्रेजी जानते हैं और वोट मांगने के लिए अन्य भाषाओँ का चुनाव करते हैं.
पांच  
जरूरत है, अंग्रेजी और अंग्रेजियत के एकाधिकार को समाप्त कर जनभाषा को अपनाने की.  न्यायपालिका, कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और खबरपालिका. सभी जगहों पर. यह समान रूप में दिखना चाहिए. हालाँकि इन सब में खबरपालिका अधिक आगे है. खास तौर पर दक्षिण भारत में. लेकिन बावजूद इसके जनभाषा का जनांदोलन की जरूरत है



डॉ रमेश यादव
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, स्कूल और जर्नलिज्म न्यू मीडिया स्टडीज
इग्नू, नई दिल्ली
भाषा वहीँ जो ‘पिया’ मन भाये ! भाषा वहीँ जो ‘पिया’ मन भाये ! Reviewed by मधेपुरा टाइम्स on June 25, 2013 Rating: 5

2 comments:

  1. भाषा के पक्षे में बेहतर हस्तक्षेप है भाई राकेश जी !
    बहुत-बहुत शुक्रिया !

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  2. ramesh yadav ne court mein janbhasa ka achha mudda uthaya hai..ki nirnay lokbhasa mein dena chahiye..mera manana hai ki sarkari kam maithili, bhojpuri jaise lok bhasa mein bhi hona chahiye..jaise humne english aur hindi ko apnaya hai toh apni lokbhasa ko kyun nahi apna sakte..

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