निरर्थक आडम्बर ही है लोक दिखाऊ भक्ति और साधना

भक्ति और साधना के नाम पर आजकल अपने यहाँ से लेकर देश भर में हर कहीं जो कुछ चल रहा है उसे किसी भी पैमाने से भक्ति, साधना, उपासना आदि की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।
भक्ति और साधना व्यक्ति का वह नितान्त ऐकान्तिक पक्ष है जिसमें उपासक और उपास्य के बीच कुछ नहीं होना चाहिए, तभी साधना का महत्त्व है। इन दोनों ध्रुवों के बीच यदि लोगों को दिखाने, दिखावे, सुनाने आदि की कैसी भी स्थिति सामने जाने पर साधना फलीभूत नहीं हो सकती और ऐसे में यह आडम्बरों से घिर कर निरर्थक हो जाती है।
लोगों को दिखाने और आत्मप्रचार की दृष्टि से की जाने वाली साधनाओं और भक्ति का कोई अर्थ नहीं है सिवाय समय और अपनी ऊर्जा नष्ट करने के। इससे हम लोगों की नज़रों में महान भक्त, साधक, तपस्वी और ऋषि के रूप में पहचान जरूर बना सकते हैं लेकिन ईश्वर से उतने ही दूर होते चले जाते हैं।
वस्तुतः भक्ति और साधना का प्रमुख उद्देश्य ईश्वर की प्राप्ति करना है और ऐसे में भक्त या साधक का लक्ष्य ईश्वर होना चाहिए कि वह क्षेत्र या आम जनता, जिसे उसकी साधना या भक्ति से कोई मतलब नहीं होता और उन्हें बेवजह विवश होकर सुनना पड़ता है।
ईश्वर को रिझाने या प्राप्त करने के लिए की जाने वाली साधनाओं या भक्ति में किसी भी स्तर पर बाहरी तत्व का प्रवेश, इतर वैचारिक धुँध, पब्लिसिटी, छपास और लोकेषणा-यशेषणा पूरी करने के प्रयासों का जब समावेश होने लगता है तब उस भक्ति या साधना को प्रदूषित और बेकार ही माना जाना चाहिए।
साधना का अर्थ यह है कि जो कुछ किया जाए वह ईश्वर को सामने मानकर, ईश्वर के लिए समर्पित किया जाए, तभी ईश्वर और उपासक का सीधा संबंध हो सकता है। इस प्रकार से कोई यजन किया जाए तभी उसके सार्थक परिणाम सामने सकते हैं।
आजकल तो हर प्रकार की भक्ति और साधना के मार्ग में पब्लिसिटी, अहंभाव और अनावश्यक लोक प्रचार की भावनाएं हावी हैं अब कोई भी भक्तिभाव का कार्यक्रम होता है तो लोगों के दिखावे के लिए होता है।
आजकल ईश्वर की बजाय भक्ति-साधना जनता को दिखाने और सुनाने भर के लिए हो रही है। छोटा-मोटा आयोजन हो या अनुष्ठान, या फिर नियमित आयोजन। हर कहीं माईक की तेज आवाजों का सहारा लिया जा रहा है।
प्रदोष का रूद्राभिषेक हो या अष्टमी-पूर्णिमा को दुर्गासप्तशती के पाठ, या फिर साल भर होने वाले आयोजन, हर मौके पर माईक का प्रचलन बढ़ गया है। हमारा ध्यान ईश्वर की साधना से भटक कर माईक साधना में लग गया है।
लोग मन्दिरों में असीम शांति और सुकून के लिए आते थे और भीड़भाड़ तथा शोरगुल से दूर वहाँ पहुंचकर अनिर्वचनीय आत्मतोष प्राप्त होता था लेकिन पुजारियों, धर्मान्ध भक्तों और मूर्ख या आधे-अधूरे ढोंगियों की वजह से अब मन्दिरों की शांति भंग हो चुकी है।
शायद ही कोई मन्दिर ऐसा बचा होगा जिसमें माईक देवता की प्रतिष्ठा की हुई होगी।  माईक के साथ ही मन्दिरों में देवी-देवताओं के मंत्रों और स्तुतियों के कैसेट्स बड़े सवेरे से लेकर देर रात तक चलाए जाने की एक और बुराई इतनी हावी हो गई है कि इसने मन्दिरों की शांति छीन ली है और हमारे लगभग सारे मन्दिर अशांत हो गए हैं।
इन मन्दिरों में दूसरे कोई भक्त चाह कर भी दूसरी स्तुतियों और मंत्रों के गान का आनंद प्राप्त नहीं कर सकते। सभी भक्तों के लिए विवशता है कि जो सुनाया जा रहा है उसे ही सुनें और चले जाएं।
विभिन्न अवसरों पर मन्दिरों में भजनों, मंत्रों, स्तुतियों या लाईव रूद्राभिषेक/ दुर्गासप्तशती आदि के पाठों की वजह से पूरे क्षेत्र में इतनी अशांति फैली रहती है कि इन चंद शोरगुल पसंद लोगों के अलावा इन मन्दिरों में आने वाले लोग कुछ और पाठ या स्तुति करनी चाहें तो इनके लिए भी अनुकूलताएं समाप्त हो गई हैं। मन्दिरों के आस-पास रहने वाले भक्तगण और साधक तो चाह कर भी उपासना नहीं कर पाते।
कई स्थानों पर रात-रात भर भजन-कीर्तन, अनुष्ठान, पाठ, रामायण पारायण आदि चलते रहते हैं। गरबों के दिनों में शाम को तेज वोल्यूम में शुरू होने वाले माईक देर रात तक बजते रहते हैं।
ऐसे में इन माईक वाले इलाकों में देव या दैवी उपासना का सारा ठेका इन गरबा मण्डलों की कैद में रहता है। यों नवरात्रि में दैवी की रात्रिकालीन पूजा का विधान है। लेकिन दैवी पूजा में विघ्न डालने वाले ये माईक महिषासुर कहाँ चैन से साधना करने देते हैं।
आम दिनों में शांति, नित्य-नैमित्तिक कर्म वाले दिनों में शांति, मन्दिरों में जबरदस्ती का शोरगुल.. आखिर आम आदमी जाए तो कहाँ। मन्दिरों में होने वाले रूद्राभिषेक और पाठों तथा पारायणों की हालत तो ये हो गई है कि अब पण्डितों को भी अपनी आवाज के ओज और वाणी माधुर्य पर भरोसा नहीं रहा, उनकी भी आवाज माईक देखकर ही निकलती है।
इसी तरह सुन्दरकाण्ड और रामायण करने वालों का भी लक्ष्य राम की उपासना होकर लोगों को सुनाना ही रह गया है। हर तरफ शोर के बीच आदमी शांति की तलाश में मन्दिरों से भी निराश हो चला है।
कई मन्दिरों में शिखर के दोनों तरफ माईक ऐसे लटकाए हुए हैं जैसे भगवान के कुण्डल ही हों। धर्म के नाम पर पागलपन का ऐसा दौर शुरू हो चुका है जिसमें षोडशोपचार और राजोपचार से पूजा का कोई मतलब नहीं है जब तक माईकोपचार हो। पण्डितों की एक प्रजाति तो ऐसी सामने गई है जो माईक के बगैर कुछ कर ही नहीं पा रही है। जो सुनना चाहें उन्हें सुनाकर तथा दूसरे भक्तों की शांति छीनकर हम ये कैसी उपासना कर रहे हैं।
आजकल संत-महात्माओं, महामण्डलेश्वरों, महंतों और बाबों की भी ऐसी प्रजाति सामने गई है जिसे ईश्वर से भी ज्यादा माईक पसंद हैं और इन्हें सत्संग तथा भजन-कीर्तनों प्रवचनों का आनंद तभी आता है जब माईक हो। भले ही सुनने वाले सौ दो सौ से ज्यादा हों।
मन्दिरों की शांति भंग करने से लेकर धर्म के नाम पर धंधे चलाने इन लोगों की ही वजह से ही मन्दिरों का प्रभाव समाप्त होता जा रहा है और मन्दिरों में रहने वाले भगवान खुद इन शोरगुलियों से परेशान हो चले हैं।
भक्ति और साधना की इसी दशा के कारण आजकल हालत यह हो गई है कि मन्दिरों से दैवीय और दिव्य तत्व पलायन कर चुका है और मन्दिरों का महत्त्व दिनों दिन घटता जा रहा है।
 
-- डॉ. दीपक आचार्य (9413306077)
निरर्थक आडम्बर ही है लोक दिखाऊ भक्ति और साधना निरर्थक आडम्बर ही है लोक दिखाऊ भक्ति और साधना Reviewed by मधेपुरा टाइम्स on October 20, 2012 Rating: 5

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