जहाँ नकली और कृत्रिम संसाधन वहाँ से गायब है जीवन की सुगंध

शाश्वत और मनभावन सुगंध वही दे सकता है जो असली है। नकली और कृत्रिम वस्तुओं से कभी सुगंध की कल्पना नहीं की जा सकती। बात चाहे इंसान की हो या संसाधनों की। जहाँ कहीं असलियत है वहीं सुगंध है, नकली और बनावटी में न कोई गंध है न जीवन।
आजकल असलियों का जमाना लदने लगा है और घर-परिवार से लेकर बाहर तक सभी जगह नकलियों और नकलचियों की भरमार रहने लगी है। नकल के मामले में हम दुनिया के सबसे तेज रफ्तार लोग हैं जो अपने लाभ के लिए किसी की भी नकल कर सकते हैं, नकल उतार सकते हैं और किसी भी नकली माल को असली साबित कर सकते हैं।
पिछले कुछ दशक से नकली माल का चलन खूब चल रहा है। हम अच्छा दिखना और दिखाना चाहते हैं। इस फैशनपरस्ती के भंवर में फँसे हुए हम लोग अच्छा दिखाने भर के लिए कुछ भी बुरा कर सकने में माहिर हो गए हैं।
लोगों के बाल, मूंछों, दाँतों, आँखों, नाखूनों से लेकर कई-कई अंग-उपांग नकली आने लगे हैं। कोई जरूरत के नाम पर, तो कोई मैकअप के नाम पर अपनी असलियत खोता जा रहा है।
हर कोई चाहता है कि लोगों को अच्छा दिखे, भले ही वह अच्छा न हो या अच्छा न बन सके तो कोई परवाह नहीं, अच्छा ही अच्छा दिखना चाहिए। जो जितना अच्छा दिखेगा उतना ही ज्यादा लोगों को भ्रमित करने की योग्यता का विकास होता चला जाएगा। और आजकल वैसे भी जो आदमी जितने अधिक से अधिक लोगों को प्रभावित कहें या भ्रमित कर सकता है, जमाना उसकी पूछ करने लग जाता है।
लोग जो हैं वैसा दिखने में उन्हें शर्म महसूस होती है इसलिए कृत्रिम संसाधनों, उपकरणों और सामग्री का उपयोग करते हुए अपने तरोताजा होने और नित नूतन होने का भ्रम बना रहता है।
कोई डाई कराकर बाल काले रखता है और जवान दिखने और दिखाने के फेर में लगा रहता है। तो कोई सर की टाल छुपाने और बुढ़ापे को ढंकने की गरज से हमेशा साफा या पगड़ी अथवा टोपी का इस्तेमाल करने का आदी हो गया है चाहे कितनी ही तेज धूप या गर्मी हो अथवा उमस का माहौल हो।
इनके प्रयोग से लोग जवान दिखते हैं। ख़ासकर सार्वजनिक क्षेत्रों में काम करने वाले लोग जनता की निगाह में सदा जवान दिखने-दिखाने के लिए इस तरह के प्रयोग करते रहते हैं ताकि उनके यश की आयु को जवानी से जोड़कर देखा जा सके और अन्त तक आकर्षण बरकरार रहे।
आजकल आदमी प्लास्टिक, लौह लक्क्ड़ का कचरा और जानवरों के अंगों से बनी सामग्री का इस्तेमाल करके फूला नहीं समा रहा। खुद के शरीर से लेकर अपने घर-दफ्तर और बरामदों तक को सुन्दर और आकर्षक दिखाये रखने की गरज से ढेरों ऐसे नकली साजो-सामान का भण्डार करता जा रहा है जो हूबहू अनुकृति भले ही दिखते हों मगर हैं पूरी तरह कृत्रिम।
इस मामले में पेड़-पौधों की हत्या के लिए जिम्मेदार आदमी ने अपने परिवेश को सुन्दर दिखाने के लिए गमलों से लेकर जमीनी परिसरों तक में कहीं कृत्रिम फूल-पौधे लगा दिए हैं तो कहीं नकली बौनसाई। आजकल तो मन्दिरों तक में नकली फूल-पत्तियों का जमावड़ा होने लगा है।
जिस पैमाने पर आदमी कृत्रिम सज्जा और नकली पेड़-पौधों का प्रयोग कर रहा है उसी अनुपात में प्रकृति भी उससे रूठने लगी है। इन कृत्रिम संसाधनों का प्रयोग करने वाले आदमी की जिन्दगी से प्रकृति के मौलिक रंग, रूप और रस पलायन कर चुके हैं।
जो नकली सुन्दरता दिखाई दे रही है वह सिर्फ दर्शनीय ही है, अनुभव करने लायक नहीं। इसी तर्ज पर अब आदमी में सुगंध गायब है, भले ही वह शारीरिक सौष्ठव से कितना ही परिपूर्ण और मोटा-ताजा तथा हैण्डसम या ब्यूटीफूल प्रतिभासित क्यों न दिखे।
आदमी की नीयत भाँपने में माहिर प्रकृति ने भी अब आदमी के जीवन से असलियत और मौलिकता के आनंद छीन लिये हैं और रहने दी है कि सिर्फ आभासी जिन्दगी, जिसका आदमीयत की सुगंध से दूर-दूर तक का कोई रिश्ता नहीं रहा है।
आजकल अधिकांश घरों, दफ्तरों, होटलों, मन्दिरों, सार्वजनिक स्थलों पर कृत्रिम सामग्री से सजावट और आकर्षण का जमाना है और यह आकर्षण सिर्फ दर्शनीय ही है। इससे न सुगंध पायी जा सकती है न कोई सुकून।
आदमी और उसके परिसर दोनों में कृत्रिमता का जबर्दस्त डेरा पसरता जा रहा है। जिस अनुपात में आदमी कृत्रिमता को अपनाता जा रहा है उसी अनुपात में उसका पूरा जीवन ही आडम्बरी होता जा रहा है जहाँ सत्य, वास्तविकता और मौलिकता का दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं बचा है।
हम कितने ही खुश भले हो लें हमारे परिसरों और घर-बगियाओं को सुन्दर व आकर्षक दर्शाकर। लेकिन प्रकृति तो अच्छी तरह जानती है हमारी हरकत को। प्रकृति यह भी जानती है कि आदमी का उसके प्रति अब कितना सम्मान रह गया है। यही कारण है कि आज आदमियों की अनचाही भीड़ के बावजूद आदमियत की गंध गायब हो गई है।
प्रकृति का नियम है कि जहाँ कृत्रिमता और आडम्बर रहते हैं वहाँ न प्रकृति रहती है, न प्रकृति का कोई उपहार। रहती है सिर्फ नीरसता, निर्गंध आबोहवा और सब कुछ कृत्रिम संसार, जहाँ कोई किसी का नहीं है, सब अपने लिए जीते-मरते हैं और अपने जीवन को सँवारने के लिए किसी को भी मार डालने तक की आजादी या उन्मुक्त स्वच्छन्दता व्याप्त है |


---डॉ. दीपक आचार्य (9413306077)
जहाँ नकली और कृत्रिम संसाधन वहाँ से गायब है जीवन की सुगंध जहाँ नकली और कृत्रिम संसाधन वहाँ से गायब है जीवन की सुगंध Reviewed by मधेपुरा टाइम्स on October 10, 2012 Rating: 5

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