पंकज भारतीय/१३ अक्टूबर २०१०
टिकट के दौर में मुखिया और मुखियापति भले ही बहुत कामयाब नही रहे हों पर टिकट के दौर में शामिल अपने प्रतिद्वंदियों को को उन्होंने एहसास तो करा ही दिया है कि विधानसभा की चौखट पर कदम रखने का हौसला वो भी रखते हैं.कुछ मुखिया और मुखियापति टिकट लेकर या निर्दलीय अखाड़े में कूद भी चुके हैं.जो प्रत्याशी बने हैं उनकी चौपाल तो नामांकन के साथ ही लगने लगी है लेकिन ज्यादा बल्ले-बल्ले तो उन मुखिया और मुखियापति की है जो खुद मैदान में नही हैं.इनकी मार्केट वैल्यू अभी आकाश छू रही है.दरअसल एक पंचायत की आबादी अमूमन पांच हजार से अधिक की होती है.विधानसभा के लिहाज से यह बड़ी आबादी मानी जाती है.ऐसे में हर प्रत्यासी की नजर मुखिया पर बनी रहती है.पटना-दिल्ली में जब टिकट की मारामारी चल रही थी तो क्षेत्र में मुखियाजी का भाव टमाटर और प्याज के भाव से भी तेज था.संभावित प्रत्याशी मुखिया जी से समर्थन में पत्र लिखवा रहे थे तो कोई बोलेरो और स्कॉर्पियो पर उन्हें लादकर पार्टी सुप्रीमो के पास पैरेड करवा रहे थे.अब जब वोट देने की बारी है तो मुखिया जी की खुशामद जायज ही है.
चाय की कीमत अब कम नही रह गई है लेकिन मुखिया जी की चौपाल पर दर्जनों लोगों को एक साथ चाय परोसी जा रही है.चाय की चुस्की के साथ चौपाल पर राजनीति की चर्चा जारी है.जनता-जनार्दन उम्मीद लगाये है कि मुखियाजी बताएँगे कि किसे वोट देना है.लेकिन मुखियाजी ने कच्ची गोली नही खेली है.कहते हैं-मामला काफी गंभीर है,कुछ भी हो सकता है.ऐसे में सोचसमझ कर फैसला लेना है.उसके बाद चौपाल समाप्त हो जाता है कल मिलने की बात करके.
पंचायती राज्य व्यवस्था में सत्ता के विकेन्द्रीकरण के बाद जनप्रतिनिधियों की ताकत बढ़ी है.यह ताकत पैसे के रूप में भी बढ़ी है.यह अलग बात है कि पैसे के रूप में यह ताकत कितना सफ़ेद और कितना काला है यह बहस का विषय हो सकता है लेकिन इस विषय पर आम सहमति होगी कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव तक में इनके हस्तक्षेप देखी और सुनी जाती है.
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| *पहले टिकट की दौर में,अब वोट मैनेजर की भूमिका में *चौपाल पर लोगों की भीड़ तय करती है मार्केट वैल्यू *प्रत्याशी की जीत-हार से कोई मतलब नही. |
टिकट के दौर में मुखिया और मुखियापति भले ही बहुत कामयाब नही रहे हों पर टिकट के दौर में शामिल अपने प्रतिद्वंदियों को को उन्होंने एहसास तो करा ही दिया है कि विधानसभा की चौखट पर कदम रखने का हौसला वो भी रखते हैं.कुछ मुखिया और मुखियापति टिकट लेकर या निर्दलीय अखाड़े में कूद भी चुके हैं.जो प्रत्याशी बने हैं उनकी चौपाल तो नामांकन के साथ ही लगने लगी है लेकिन ज्यादा बल्ले-बल्ले तो उन मुखिया और मुखियापति की है जो खुद मैदान में नही हैं.इनकी मार्केट वैल्यू अभी आकाश छू रही है.दरअसल एक पंचायत की आबादी अमूमन पांच हजार से अधिक की होती है.विधानसभा के लिहाज से यह बड़ी आबादी मानी जाती है.ऐसे में हर प्रत्यासी की नजर मुखिया पर बनी रहती है.पटना-दिल्ली में जब टिकट की मारामारी चल रही थी तो क्षेत्र में मुखियाजी का भाव टमाटर और प्याज के भाव से भी तेज था.संभावित प्रत्याशी मुखिया जी से समर्थन में पत्र लिखवा रहे थे तो कोई बोलेरो और स्कॉर्पियो पर उन्हें लादकर पार्टी सुप्रीमो के पास पैरेड करवा रहे थे.अब जब वोट देने की बारी है तो मुखिया जी की खुशामद जायज ही है.
चाय की कीमत अब कम नही रह गई है लेकिन मुखिया जी की चौपाल पर दर्जनों लोगों को एक साथ चाय परोसी जा रही है.चाय की चुस्की के साथ चौपाल पर राजनीति की चर्चा जारी है.जनता-जनार्दन उम्मीद लगाये है कि मुखियाजी बताएँगे कि किसे वोट देना है.लेकिन मुखियाजी ने कच्ची गोली नही खेली है.कहते हैं-मामला काफी गंभीर है,कुछ भी हो सकता है.ऐसे में सोचसमझ कर फैसला लेना है.उसके बाद चौपाल समाप्त हो जाता है कल मिलने की बात करके. जाहिर है,मुखिया और मुखियापति चौपाल को लंबा खीचने की कवायद में हैं.मुखिया जी की अपनी भी परेशानी है.प्रत्याशियों को तो बहुत कुछ कह रखा है.ऐसे में विरोधियों ने यदि हवा फैला दी कि मुखिया जी के यहाँ चौपाल पर एक भी आदमी नजर नही आते हैं तो उनका मार्केट वैल्यू सेंसेक्स की तरह धडाम से गिर सकता है.मुखिया और मुखियापति की दिली तमन्ना है कि चौपाल सजती रहे.हार-जीत किसकी होती है,खास मायने नही रखता,क्योंकि बहरहाल चित भी उनकी और पट्ट भी उन्ही की है.
सजने लगी है मुखिया-मुखियापति की चौपाल
Reviewed by Rakesh Singh
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October 13, 2010
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