रविवार विशेष : लघुकथा- पागल

लघु कथा
पागल
शहर के अतिव्यस्त नुक्कड़ पर अहले सुबह.चायखाने के सामने.चाय की लालच में एक कथित पागल खड़ा था.तभी दूसरा पागल वहां आ धमका.आपस में नजरें टकराईं.पहला पागल आक्रामक मुद्रा में दूसरे पर पिल पड़ा.हडबडाकर दूसरा पागल पीछे हटा.अपनी पोटली नीचे रख दी.फिर हिंसक तेवर के साथ उसे ललकारते आगे बढ़ा.पहला पागल तनिक पीछे हट गया.अपनी पोटली परे रखकर,दांत पीसते उसपर झपट पड़ा.दूसरा सावधानी से पीछे हट गया.मानवतावश,मैंने दोनों को मना करने हेतु अपना पग बढ़ाया ही था कि भीड़ से आवाज आई,अब तीसरा पागल अपना रोल अदा करने जा रहा है.शरमाकर मैं वापस हो लिया.मात्र मूकदर्शक बना रहा.यह रोमांचक दृश्य अब वाकयुद्ध में परिणत हो गया.दोनों एक दूसरे पर चुनी हुई गलियों की बौछार करने लगे.इस परिस्थिति में शारीरिक क्षति शून्य हुई.नाराजगी का सवाल स्वार्थवश क्षेत्राधिकार को लेकर था.पुन: दृश्य में परिवर्तन हुआ.चुनौती और नसीहत देते बड़ी नजाकत के साथ दोनों ने अपनी अपनी पोटली संभाली और बडबडाते विपरीत दिशा में कूच कर गए.अप्रत्याशित निराशा से खिन्न भीड़ क्षिप्रता से छंट गयी. मैं सोचने लगा,लोलुपता की पराकाष्ठा पर पहुँच कर तथाकथित सभ्य और शिक्षित नागरिक आपस में लड़-भिड जाते हैं.जन-धन की हानि तक होती है.मगर समाज ने आजतक उन्हें पागल की संज्ञा से नही नवाजा ! आखिर पागल की परिभाषा क्या हो सकती है?
                                              -पी० बिहारी बेधड़क
                                     अधिवक्ता, सिविल कोर्ट,मधेपुरा.
रविवार विशेष : लघुकथा- पागल रविवार विशेष : लघुकथा- पागल Reviewed by Rakesh Singh on September 19, 2010 Rating: 5

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