बता दे कि प्रथम बैशाख को मैथिली नूतन वर्ष के अवसर पर मनाये जाने वाली पर्व जुड़-शीतल नये साल की शुरूआत तपती गरमी से शुरू होती है। इस अवसर पर बड़े-बुजुर्ग छोटों के सिर पर सुबह सबेरे पानी देकर जुड़-शीतल पर्व से इस नये साल के आगमन का स्वागत किया जाता है ताकि यह शीतलता सदा बरकरार रहे। वहीं घर की बुजुर्ग महिलाएं अपने परिवार समेत पास-पड़ोस के बच्चों का बासी जल से माथा थपथपा कर सालों भर शीतलता के साथ जीवन जीने की आशीर्वाद दिया।
बताया जा रहा है कि मिथिलांचल वासियों के आज के दिन घरों में चूल्हा नहीं जलाने की भी परम्परा रही और इस मौके पर प्रकृति से जुड़ते हुए सत्तू और आम के टिकोला की चटनी को खाया जाता है। इस वजह से इस पर्व को कोई सतुआनी तो कोई बसिया पर्व भी कहते हैं। वैसे आज दिन और रात को खाने की सभी व्यंजन एक दिन पूर्व की रात्रि में ही अक्सर बना लिया जाता है। जुड़-शीतल पर्व की महत्ता कोशी , सीमांचल सहित मिथिलांचल क्षेत्र में अधिक होती है। इस अवसर पर महिला, पुरुष और बच्चे सभी अपने अपने कुआं, तालाब, आहार, मटका की साफ़-सफाई के साथ साथ बाट की भी सफाई किया। बाट यानी सड़क पर जल का पटवन कर आम राहगीरों के लिए भी शीतलता की कामना किया। इस पर्व का चर्चा इसलिए भी जरुरी है की लोग प्रकृति और पडोसी की चिंता से मुक्त होते जा रहे हैं। पर्यावरण को स्वच्छ रखने की दिशा में यह पर्व काफी महत्वपूर्ण है। बावजूद इसके मिथिलांचल में भी इस पर्व में भारी गिरावट आई है। न केवल लोगों ने इस पर्व को मनाना भूल गया है बल्कि मनाने वाली महिलाओं का भी सत्कार करना भूल गए हैं.

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