बिहार में शराबबंदी: कठिन है राह पनघट की...

बिहार की नई नीतीश सरकार का एक अद्भुत और बड़ा कदम बिहार में आगामी 01 अप्रैल से पूर्ण शराबबंदी की घोषणा मानी जा सकती है. घोषणा हुई और जहाँ विरोधियों के बयान इस मुद्दे पर आने बंद हो गए वहीँ कईयों ने बिना इसके तह में गए सरकार के लिए बधाइयों की झड़ी लगा दी.
    मैं भी खुश हुआ और लगा कि ‘मयखाने बिहार’ अब विकास की नई कहानी गढ़ेगा और भले ही आंकड़े नहीं हो, पर शराब के नशे के दीवाने बिहार के 30-40% लोगों (50% महिला को घटा कर) की वजह से जहाँ सूबा परेशान था, अब उस परेशानी से ‘बढ़ता बिहार-उगता बिहार’ निजात पा सकेगा. पर जैसे ही इसपर गहराई से सोचने लगा कई बातें दिमाग में आने लगी और ख़ुशी का नशा उतरने लगा. ऐसा लगा कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की नीयत भले ही अच्छी हो, पर बहुत ही कठिन है राह पनघट की.
    आइये एक नजर अपने सूबे में पीने वालों की कैटगरी पर डालें. मुख्यतया दो तरह के लोग यहाँ शराबखोरी में अपनी आन-बाण-शान देखते हैं, भले ही कहें कि गम या ख़ुशी में वो शराब पी रहे हैं, पर उन्हें इसकी लत लग चुकी है. अमीर लोग अधिकांश विदेशी शराब पीते हैं और गरीब अधिकाँश देशी. बिहार के आसपास के कई राज्यों और नेपाल में शराब खुलेआम बिकती है और जिस देश में AK-47 से लेकर गांजा-चरस-स्मैक तक आसानी से उपलब्ध हो, वहां ये कल्पना नहीं की जा सकती है कि कोई राज्य शराब पर पूर्ण प्रतिबन्ध लागू करवा दे. बिहार में पान मसाला-गुटखा पर प्रतिबन्ध लगाया जा चुका है, पर हर मुंह अभी भी पहले की तरह गुटखा-युक्त है. हाँ, चोरी-छिपे बिकने वाले शराब की कीमतें जरूर बढ़ जायेगी, भले ही इसकी पहुँच कम लोगों तक ही क्यों न हो. पार्टियों में शराब का दौर थम जाए, मुमकिन नहीं लगता. बिहार पुलिस, कई राजनेता और मीडिया भी सख्ती से इसे लागू करवाने में रुचि लेगी, ये भी मुश्किल ही दीखता है. क्योंकि कई पुलिसवालों समेत बहुत सारे नेता के अलावे मीडिया हाउस से जुड़े कई व्यक्ति भी शराब पीने में पीछे नहीं हैं.
    बहुत सारे लोगों का कहना है कि अमीरों के लिए भले ही शराबबंदी का कोई मतलब नहीं रह जाए, पर ग़रीबों की शराबखोरी पर जरूर लगाम लगेगा. आइये देखते हैं, बिहार के गरीब कौन सी शराब पीते हैं. गरीब या तो देशी शराब की दूकान से माल्टा, ईलायची, नारंगी आदि नाम से ब्रांडेड करार दिए देशी शराब पीते हैं या फिर उन्हें कहीं-कहीं गाँव में अवैध रूप से चल रहे भट्ठी से देशी शराब (महुआ और ठर्रा) मिल जाता है. इन भट्ठियों का इतिहास पुराना है और जब भी कोई सख्त पुलिस पदाधिकारी किसी जिले में आते हैं तो ही इस बात का उद्भेदन हो पाता है अमुक भट्ठी दस साल-बीस साल से चल रहा था. देशी शराब की कई अनुज्ञप्तिधारी दुकानों में भी अधिक कमीशन के लिए इन देहाती भट्ठियों से बड़ी मात्रा में देशी शराब मंगाए जाते हैं और जहाँ-कहीं-भी जहरीली शराब से मौतों की खबर आती है, इन भट्ठियों के शराबों के कथित योगदान से इनकार से नहीं किया जा सकता.
    अब आइए, जानते हैं अबतक बिहार में धुँआधार शराब की दुकानें खुलवाने के पीछे सरकार के क्या तर्क थे? सरकार कहती आ रही थी कि शराब की लत का छूटना काफी मुश्किल है और जब लाख जागरूक करने के बाद लोग शराब पीयेंगे ही तो सरकारी दुकान नहीं रहने पर लोग दूषित या जहरीली शराब पीयेंगे और मौत के मुंह में चले जायेंगे. यदि दूषित या जहरीली शराब पहले समस्या थी तो अब भी है.
    शराबबंदी के प्रयोग देश के अन्य राज्यों या कई देशों में भी किये जा चुके हैं, पर पूरी सफलता हर जगह मुश्किल साबित हुई है. अमेरिका में भी सन 1920 में शराबबंदी का प्रयोग किया गया था जो 1933 तक चला और बताते हैं कि इसकी वजह से उस दौरान अवैध शराब के कारण उत्पन्न समस्याओं के अलावे अपराध बढ़ने के साथ कई नए माफिया गैंग का भी उदय हुआ था. अब देखना है बिहार में सैद्धांतिक रूप से 01 अप्रैल 2016 से शराबबंदी का प्रयोग में कितना असर हो पाता है, पर एक बात तो तय है कि किसी भी बड़े सुधार की शुरुआत ऐसे ही कानून और साफ़ मंशा से होती है, जो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार में नजर आती है.  
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
बिहार में शराबबंदी: कठिन है राह पनघट की... बिहार में शराबबंदी: कठिन है राह पनघट की... Reviewed by मधेपुरा टाइम्स on December 02, 2015 Rating: 5

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