पीत मानसिकता की शिकार
पत्रकारिता
प्रेस काउन्सिल ऑफ इण्डिया की तीन सदस्यीय जांच टीम
द्वारा बिहार के प्रिंट मीडिया की बिकाऊ तस्वीर उजागर करने के बाद बुद्धिजीवियों
के बीच चिंतन का दौर शुरू हो गया है. इलेक्ट्रानिक मीडिया में बहस का दौर जारी है
तो प्रिंट मीडिया ने खामोशी साध रखी है. खामोशी स्वाभाविक है क्योंकि काला चेहरा
सामने लाना मुश्किल है. ऐसी (सभी नहीं) अखबारों से बेहतर तो वेश्याएं होती हैं जो
केवल अपना शरीर बेचती हैं. यहाँ तो अखबारें न केवल भरोसे का क़त्ल करती हैं बल्कि
आत्मा भी चंद पैसों के लिए हुक्मरानों के बिस्तर पर लुटा रही हैं.
बिहार
की पत्रकारिता ही पीत नहीं बल्कि इससे जुड़े पत्रकारों की मानसिकता भी पीत हो चुकी
है. सीधी सी बात है कि आप जैसे लोगों का नमक खायेंगे, मानसिकता भी वैसी ही विकसित
हो जायेगी. अखबार सत्ता के शीर्ष पर बैठे बहरूपिये और सत्ता के दलालों की रखैल बनी
हुई है और जिला और कस्बों के पत्रकारों की स्थिति वेश्याओं से भी बदतर है.
मैनेजमेंट बखूबी जानता है कि उनके जो बुद्धिजीवी पत्रकार हैं वे रीढ़विहीन लोगों की
जमात है. चुप रहना और दुम हिलाना इनकी मजबूरी होती है. अब ऐसे लोगों से पाठक किसी
न्याय की उम्मीद पाले बैठे हैं तो वे कतई अपना भला नहीं कर रहे हैं.
पीत
मानसिकता का एक छोटा सा उदहारण देखिये. घटनास्थल दरभंगा के एक जानेमाने अखबार का
दफ्तर. एक दलाल किस्म का पत्रकार जिले के आका तथाकथित ब्यूरो चीफ को खुश करने के
लिए नाश्ता खरीद कर लाता है. ऑफिस में उपस्थित सभी पत्रकारों को नाश्ता परोसा जाता
है सिवाय एक पत्रकार. क्योंकि वह शख्स तथाकथित निम्न जाति से ताल्लुक रखता है. मजे
की बात है कि इस घटना के बारे में हमारे एक पत्रकार मित्र ने ही विस्तार से बताया
जो खुद ऊँची जाती से ताल्लुक रखते हैं. बड़ी जिम्मेवारी के साथ लिख रहा हूँ कि
मीडिया में जाति और धर्म का रोग इस कदर व्याप्त है कि अब यह कैंसर का रूप ले चुका
है. ऐसे बहरूपिये पत्रकार जब समाज में व्याप्त कुरीतियों और भ्रष्टाचार के खिलाफ
लिखते हैं तो लगता है कि कोई वेश्या नारी-धर्म और संस्कार के मुद्दे पर प्रवचन कर
रही है.
यह
समझना जरूरी है कि मीडिया की साख पर सवाल क्यों उठने लगे हैं ? मैनेजमेंट बिकाऊ
इसलिए है वह व्यवसाय कर रही है लेकिन पत्रकार बिकाऊ इसलिए हैं कि उनके पास विकल्प
नहीं है. जरा गौर से इन पत्रकारों के चेहरे देखिये. थके-हारे, कुम्हलाए और जिंदगी
से पूरी तरह निराश. मतलब चपरासी तक की नौकरी तक के प्रयास में जब असफलता हाथ लगी
तो जुगाड़ टेक्नोलॉजी से कलम के सिपाही बन गए. ऐसे ही लोगों के लिए अब पत्रकारिता
हथियार बन चुका है. अर्थात यह ‘जापानी तेल’ और ‘शिलाजीत’ की तरह फायदे पहुंचा रहा है. जाहिर है कि क्षणिक आवेग में
किसी भी हद तक जाने में इन्हें गुरेज नहीं है. (क्रमश:)
(मधेपुरा टाइम्स ब्यूरो)
पत्रकारिता का गिरता स्तर: जिम्मेवार कौन ?(भाग-4)
Reviewed by मधेपुरा टाइम्स
on
February 24, 2013
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