2008-2017: नुकसान का बस अंदाजा लगा सकते हैं, बाकी दर्द तो जिसपर बीतता है वही...

कोसी सीमांचल में बाढ़ का कहर थम नहीं रहा है। प्रलयंकारी बाढ़ से मधेपुरा में सर्वाधिक बाढ़ प्रभावित आलमनगर और चौसा प्रखंड के अलावे अब छः से अधिक प्रखंड बाढ़ की चपेट में है।


मुरलीगंज, ग्वालपाड़ा, कुमारखंड के अलावे पुरैनी के कई गांव व उदाकिशुनगंज के भी गांवों में बाढ़ की स्थिति गंभीर बनी हुई है। जिलाधिकारी से लेकर सांसद व विधायक बाढ प्रभावित क्षेत्र का भ्रमण कर रहे है सरकार बाढ आने के बाद राहत की घुट्टी भी दे रही है लेकिन नुकसान का बस अंदाजा लगा सकते हैं सच तो यह है की दर्द तो जिसपर बीतता है वही समझता है।

बाढ़ का स्वरूप अत्यंत ही विकराल और डरावना है. कई लोगों के आशियाने उजड़ चुके हैं. कई के बचे हैं तो वह पूर्णतः जलमग्न है तो कई गांव टापू में तब्दील है. फिर भी बाढ़ से शापित इस इलाके के लोग अब डरकर भागना छोड़ “जीना यहां मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ” को दुहराते हुए कहते हैं सरकार इसका स्थायी निदान क्यों नहीं करती? राहत के आश्वासन की घुट्टी और पुनर्वास के नाम पर गांव के दलालों से लेकर उंचे पायदान तक बैठे पदाधिकारीयों के व्यापार का मौसम आ जाता है और सालों बीत जाते हैं. होता तो कुछ भी नहीं तबतक दुबारा डूब चुका होता है यह इलाका । 

एक पीड़ित ने बताया कि दिन तो कट ही जाता है लेकिन रात बहुत ही डरावनी और भयावह होती है। दूर कहीं चर-चांचर में पानी गिरने की आवाज, कुत्ते-बिल्लियों के रोने की आवाज और खूंटे में बंधे मवेशी की छटपटाहट बहुत डरावनी होती है। घर के चारों तरफ पानी, सारे रास्ते बंद, संडास में पानी भरा हुआ, पानी के करेंट में बह रहे लाशों और उसपर फन फैलाये बैठे विषैले सर्प, मन मस्तिष्क को अशांत बनाये रखती है। 

पानी का स्तर घटने से एक ओर जगती उम्मीद, दूसरी तरफ गंदगी तो मौत का दूसरा तांडव: असली तांडव तो तब शुरू होता है जब बारिश रूकती है, धूप खिलती है और बाढ़ का पानी थमता है।बाढ़ के पानी का स्तर घटना शुरू होने से जहां एक तरफ उम्मीद जगती है अपने आशियाने को लौटने की, वहीं दूसरी तरफ गंदगी मौत का दूसरा तांडव शुरू करती है। सड़े हुए कचरे, लाशें और कई गंदगियाँ जो बाढ़ के साथ बहकर आती रहती है, जो बनाती है एक सड़ांध और दुर्गन्ध भरा वातावरण और फिर फैलती है एक साथ कई महामारी जो लील जाती है कई परिवारों और बस्तियों को । सर्पदंश की घटनायें बढ़ जाती है। जहरीले सांप बाढ़ में बहकर आते हैं और अपना कहर बरपाता है. 

पर सवाल बड़ा है कि आखिर सरकार और सिस्टम जगती क्यों नहीं है? बाढ़ के समय में सरकार संवेदना दिखाने का क्या सिर्फ नाटक करती है? क्या बाकी मौसम में सरकार का दायित्व नहीं बनता है कि बाढ़ से लोगों को बचाने के लिए सुरक्षात्मक उपाय कर लें? जरूरत है सिस्टम के जगे रहने की। बहरहाल जो भी हो, आगे आगे देखिये होता है क्या? या फिर कुछ दिनों की त्रासदी कहलाकर या फिर नेपाल पर इल्जाम लगाकर फिर ‘चेप्टर क्लोज्ड’ कर दिया जाएगा? 
2008-2017: नुकसान का बस अंदाजा लगा सकते हैं, बाकी दर्द तो जिसपर बीतता है वही... 2008-2017: नुकसान का बस अंदाजा लगा सकते हैं, बाकी दर्द तो जिसपर बीतता है वही... Reviewed by मधेपुरा टाइम्स on August 18, 2017 Rating: 5
Powered by Blogger.