खूंटे से बंधी आज़ादी///डॉ. रमेश यादव

मैं एक गाय थी
बचपन में ही
बांध दी गयी
तुम्हारे खूंटे से
मौसम चाहे जैसा हो
हमारी परिधि उतनी ही थी
जितनी दूर
तुम्हारा पगहा
हमें जाने को ढील देता
जब कभी हमने कोशिश की 
परिधि से बाहर जाने की
मिल जाती
काकियों से सूचना तुम्हें
नमक-मिर्च और चासनी के साथ
फिर शुरू होता तुम्हारा वही
परंपरागत उपचार
मैं तड़प उठती
हमारी कराह
तुम्हारे मर्दानेपन को
संजीवनी देती
और
काकियों को सुख
अगले ही पल
और छोटा हो जाता
हमारा पगहा
हमारी आजादी
तुम्हारे खूंटे से बंधी
गाय की तरह थी...


डॉ. रमेश यादव सहायक प्रोफ़ेसर,
पत्रकारिता एवं नवीन मीडिया अध्ययन विद्यापीठ,
इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, मैदान गढ़ी, नई दिल्ली.-68
संपर्क : Cell 9999446868
खूंटे से बंधी आज़ादी///डॉ. रमेश यादव खूंटे से बंधी आज़ादी///डॉ. रमेश यादव Reviewed by मधेपुरा टाइम्स on February 24, 2013 Rating: 5

1 comment:

  1. एक दिन याद आ गया जब बचपन में गाय-बैल और भैंस को खूंटे में पगहे से बांध देते थे.पगहे की लम्बाई चार हाथ होती.उतनी ही परिधि में वे घूमते/घूमतीं..
    फिर सोचा भारतीय समाज में स्त्री की भी तो यहीं दशा है.
    पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था के खूंटे से बंधी स्त्री भी तो उतनी ही परिधि में आज़ाद रहती है,जितना लंबा परंपरा का पगहा होता है.

    मधेपुरा टाइम्स ने इस कविता को विमर्श का मंच देकर इसे और व्यापक बना दिया...

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